सबसे पहले तो मुझे अपनी पीठ थपथपाने दीजिए। अब आप पूछेंगे कि क्यूँ भाई ऐसा क्या तीर मार लिया तूने? आख़िर कौन सा झंडा गाड़ दिया तूने कि ख़ुद का ढोल ख़ुद ही बजा रहा है? अरे अरे! थोड़ा सब्र तो कर मेरे यार, थोड़ा साँस तो ले दिलदार। हौले-हौले राज़ पे से पर्दा खोलूँगा। आख़िर मैं भी आज के २४*७ न्यूज़ चैनल का दर्शक हूँ। शुरू में थोडे ही अपने सारे पत्ते खोल दूंगा। हाँ ध्यान बस इतना देना होगा कि ज्यादातर न्यूज़ चैनल्स कि तरह मैं ढाक का तीन पात ना साबित होऊं और मेरे ब्लॉग के रीडर्स के साथ चीटिंग ना हो। उन्हें ऐसा ना लगे कि यार इस बंदे ने हमारा समय बरबाद कर दिया और हमारी उम्मीद पे खरा नही उतरा।
सो इससे पहले पे आपका धैर्य जवाब दे जाए, मैं इस ब्लॉग पोस्ट को 'कहानी घर घर की' और 'क्यूंकि सास भी कभी बहु थी' की तरह जरुरत से ज्यादा नही खींचता हूँ। वरना आप दुबारा मेरे ब्लॉग पर मुरकर भी ना देखे।
एक्चुली बात ये है कि इतनी सर्दी वाली रात में मैने रजाई से निकल दूसरे रूम में रखी अपनी पेन और नोटबुक लाने कि 'बहादुरी' दिखाई। इस क्रम में मैने अपने आलस्य('कोरहिपन' मेरी बहन के शब्दों में) और सुस्ती को धोबी पछाड़ देते खुद उठकर इस ठण्ड का सामना करने कि 'ब्रवेरी' दिखाई। हूँ ना मैं तारीफ़ का हकदार?खैर, कुछ लाइंस पहले मैंने 'कहानी घर घर की' और 'क्यूंकि सास भी कभी बहु थी' का जिक्र किया जो की अब ऑफ-एयर हो चुके हैं. बहुतों नें चुंग-गम(chewing gum) की तरह खिचे गए इन दो शो के बंद किये जाने की तरफदारी की थी. मैं भी ऐसे लोगों की फेहरिस्त में शामिल था. भाई आखिर हद होती है किसी चीज़ की. TRP के एवज में कुछ भी दिखाते रहोगे क्या? किसी का कभी भी कोई पुराना पति या बेटा निकल आता था और कहानी को बढाता रहता है. कोई भी कभी भी मरकर वापस आ जाता था मानो की यमराज से कुछ रिश्तेदारी thi जो की मरे हूए इंसान को भी वापस भेज देते थे पब्लिक डिमांड पर. बिना कोई सर-पैर के कहानी परोसी जा रही थी.
कोई लॉजिक नहीं बस जो मन में आया दिखाए जा रहे थे वोह सीरियल वाले.पर आज इन्ही illogical shows को मिस कर रहा हूँ मैं. कारण ये नहीं है की तुलसी या पार्र्वती के ज़िन्दगी में क्या चल रहा था, ये जाने बिना खाना मेरे हलक से नीचे नहीं उतरता था. या फिर रात के 10 se 11 के बीच टाइमपास का कोई और जरिए नहीं है मेरे पास.
कारण ये है कि ये दो शो मैं और मेरा परिवार मिल के देखा करते थे.रात १० से ११ का समय जो कि इन शो का टाइम होता था, 'हमारा' होता था. जी हाँ, पूरा दिन जो परिवार 'मैं' के अलग-अलग शेड्स में जीता था, 'हम' हो जाता था.ये इन shows का ही कमाल था कि हम कुछ quality समय एक साथ बीताते थे. तुलसी और मिहिर कि ज़िन्दगी से रु-बा-रु होने के साथ साथ अपनी ज़िन्दगी कि धुप-छावं डिस्कस कर लिया कर लेते थे। शो देखना तो महज़ एक बहाना था। असल मोटिव तो एक दूसरे की कंपनी में रहना था। पर अब सब कुछ बदल गया है। अब हम एक साथ समय नही गुजारते। 'हम', 'मैं' के कई भागों में बंट गए हैं अब। आज कितना याद आ रहा है वो वक्त। आई रिअली मिस डोज मोमेंट्स। ये शो भले ही कॉमर्शियल रीजन्स से ऑफ़-एयर हूए हों पर मुझे तो इमोशनल लॉस हुआ है। क्या इसकी भरपाई हो पाएगी? जो चला गया वो अब शायद कभी वापस नही आए क्यूंकि इस कॉमर्शियल वर्ल्ड में इमोशन नही नम्बर( टी र पि)का बोलबाला है.ज़िन्दगी आगे बढ़ने का नाम है। इसलिए अब तलाश और इंतज़ार शुरू हो गई है ऐसे शो की जो 'क्यूंकि.....' और 'कहानी' का इतिहास दुहराए; जो माले के अलग-अलग मोतियों को फिर से एक धागे में पिरोये। फिलहाल 'बालिका वधु' में वो संभावना दिख रही है। उम्मीद है कीइतिहास ख़ुद को दुहरायेगा। पर कहते हैं ना की 'डी मोर डी मेर्रिएर'। जितना ज्यादा उतना बेहतर।
रिअली ये दिल मांगे मोर!