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Monday, January 19, 2009

मैं हूँ ना

मैं-- देखो तो महज एक छोटा सा शब्द। शब्दों के महासागर में पानी की एक छोटी से बूँद के समान है ये शब्द। परन्तु यही एक अदना सा शब्द राजा को रंक और रोडपति को करोड़पति बना देने का माद्दा रखता है. 'मैं' शब्द हमारे लिए वरदान भी बन सकता और हमारे अंत का कारण भी। अब ये हम पर निर्भर करता है की हम इसके किस रूप से रु -ब -रु होते हैं।

देखा जाए तो एक दोहरी ज़िन्दगी जीता है ये शब्द। एक मायाजाल की अनुभूति देता है जिसमे उलझ जाने पर मनुष्य को हर स्तिथि में उसी के सही होने का एहसास होता है।
आइये सबसे पहले 'मैं' के साइड एफ्फेक्ट्स से दो-चार हो लेते हैं.जब 'मैं' का नकारात्मक पक्ष इंसान पर हावी हो जाता है तब वो सिर्फ और सिर्फ पतन की ओर चलता चला जाता है। आम बोलचाल की भाषा में इसे इंसान के ऊपर उसके एहम का हावी होना कहते हैं।


ऐसी स्तिथि में उसके लिए सही और ग़लत के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है। उसे सिर्फ़ वही सही लगता है। उसे सिर्फ़ उसके निर्णय ही सही और उपयुक्त लगते हैं। दूसरों का नजरिया या राय उसके लिए कोई मायेने नहीं रखती. इससे न सिर्फ़ लोगों की नजरों में वो अपनी एहमियत खोता है बल्कि अपनी ज़िन्दगी के दायरे भी सीमित कर लेता है। वो जीता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने अहम खुश करने के लिए। पूरी दुनिया के साथ-साथ वो ख़ुद से भी दूर होता चला जाता है। बल्कि यूँ कहा जाए की वो ख़ुद ही दुनिया को ख़ुद से दूर करता चला जाता है और उसे इसका कोई अफ़सोस भी नही रहता। अगर कोई है तो 'मैं' ही हूँ। बाकी सब बकवास है। कुछ ऐसी ही मानसिकता हो जाती है जब 'मैं' के नेगटिव एस्पेक्ट से पाला पड़ता है।

वहीँ 'मैं' के सकारात्मक पक्ष को आलिंगन करने के तो फायेदे ही फायेदे हैं। 'मैं' के पॉजिटिव पहलु से लबरेज़ इंसान रेगिस्तान में भी हरियाली ला सकने का माद्दा रखता है। कोई राह कठिन नही होती; कोई मजिल दूर नही होती उसके लिए। ऐसे व्यक्ति के लिए तो कंकर-पत्थर भी फूलों की शैया होती है। आसमान भी झुकर इनका अभिनन्दन करता है। और इसमे कोई आश्चर्य नही होता जब ऐसे इंसान मुश्किल से मुश्किल परिस्थियों में भी आगे बढ़कर कहते हैं--' मैं हूँ ना'.

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