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Saturday, October 6, 2012

"मेरा अक्स मुझसे है कहता"

आजकल जब भी मैं झलक अपनी हूँ देखता

"कौन है तू अनजान शख्स" यह सवाल मेरा अक्स मुझसे है पूछता.

था तू दूसरों के होठों की हंसी; अब नम आँखें ही तेरी मैं हूँ देखता

ये कैसा अंतर्द्वंद है जिससे तू है जूझता?

सवाल पे सवाल मेरा अक्स मुझसे है पूछता

क्या जवाब दू उसे कुछ नहीं सूझता.

"क्यूँ हर बार दिल पर चोट लगाता है ये जग" पलट कर मैं यह सवाल हूँ पूछता

अपेक्षा और उपेक्षा के चक्रव्यूह से निकलू कैसे यह नहीं सूझता.

"ये कैसा बोझ तू हर घडी हर पहर लेकर है घूमता" मेरा अक्स मुझसे है बोलता

क्यों डग-डग पर तू दूसरों को है तोलता

जो पहले से है तेरे अन्दर वो क्यूँ दूसरों से और दूसरों में तू ढूंढता?

जो हक़ है तेरा क्यूँ करता है दूसरों से उसकी गुहार

दूसरों के सांचे में ढलकर उन्हें तो जीत लेगा पर खुद को जाएगा तू हार.

दूसरों के हाथ में दे दी है तूने अपनी कमान

खुद को दूसरों में देखने की गलती कर रहा है तू नादान.

नहीं है तू दूसरों के प्यार और परवाह का मोहताज

फ़रियाद नहीं करते वो जिनके सर होता है सरताज.

मन को फौलाद सा मजबूत कर; कम कर दूसरों से आस

दूसरों की मुहर ही नहीं बनाती तुझे है ख़ास.

अक्स मेरा कहता आगे "वापस करेगा तू मुझे वो शख्स" जो अब नहीं है पास

चाहे करती रहे दुनिया तेरी आँखें नम; वादा कर दूसरों के विष में भी तू डालेगा

हमेशा अपने प्यार की मिठास.