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Saturday, March 26, 2011

Review of DESWA-A Bhojpuri film with a difference


 "अरे देख देख इ त  आपन बुमेंस  कालेज (पटना वुमेन्स कॉलेज) के पास वाला पुलवा (foot bridge) बुझा त हो." फिल्म के शुरुआत में में आने वाले एक दृश्य को देखकर थिएटर में कहीं से आवाज आती है.

"अरे वाह इ त अपन गोलघर है रे." पर्दे पर गोलघर का दृश्य आते ही फिर कहीं से आवाज आती है.

"अरे एकरा में तो हमार गाँधी मैदान के भी सीन बाटे हो. " चहकते हुए एक महिला की आवाज़ सुनाई  पड़ती है.


 
थियेटर के अँधेरे में इन आवाजों के पीछे वाली शक्लें तो नहीं दिखाई दी पर इन शक्लों पर आई मुस्कान को

आप साफ़-साफ़ 'सुन' सकते थे.ख़ुशी थी अपने रोजमर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बने जगहों को बडे पर्दे पर देखने की.

'अपन गोलघर', 'हमार गाँधी मैदान' वगैरह वगैरह.

वो 'अपना' वाली बात महसूस हो रही थी.

और यही सबसे बड़ी खासियत और उपलब्धि है 'देसवा' की.

'देसवा' लोगों को 'अपना' वाली अनुभूति कराती है जो की आज के समय की भोजपुरी फिल्में कराने में असफल

रही हैं. चाहे इसके शूटिंग लोकेशंस हो, किरदार या फिर कहानी, 'देसवा' वाकई में 'अपनी फिल्म' के रूप में

लोगों  के सामने आती है.

'देसवा' तीन मुख्य किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती हुई उस दौर के बिहार की बात करती है जब बिहार की कमान

"एक ऐसे इंसान के हाथों में थी जिसे ठीक से कलम भी पकड़ना नहीं आता था." और 'बिहारी' कहलाना फक्र की 
नहीं बल्कि फ़िक्र की बात हुआ करती थी.

बेकारी; बेरोजगारी; पलायन, जातिवाद ; अपराध 'बिहार' शब्द के पर्याय थे. युवाओं के सामने मंजिलें तो थी पर
 'रास्तों' का कोई अता-पता नहीं था. अपहरण और लूट-खसोट वैसी ही आम बातें हुआ करती थी जैसे की दिन
 और रात का घटना.

सूरज डूबते ही दुकानों के शटर और लोगों के घरों के दरवाजों पर ही नहीं बल्कि लोगों की जिंदगियो पर भी ताला

लग जाया करता था. पर आज के बिहार में चन्दा मामा को टाटा बाय-बाय करने के बाद भी बेकौफ होकर

सडकों, शौपिंग मॉल्स और कॉम्प्लेक्स, सिनेमाघर, रेस्तुरेंट्स आदि में लोगों को आराम से ज़िन्दगी का लुत्फ़

उठाते हुए देखा जा सकता है.

सुदूर शहरों, देशों आदि में रहने वाले बिहारियों को अपनी जड़ों से वापस जुडने में पक्की सडकों का ना होना अब

बीते दिनों की बात हो गयी है.  माना कि अभी सफ़र बहुत लम्बा है और अभी भी कई कमियों को दुरुस्त करना

है. पर एक शुरुआत हो चुकी है.

'देसवा' इन्ही दो 'बिहारों' का 'यात्रा-वृत्तांत' बनकर उभरती है.

'देसवा' का एक बेहद मज़बूत पक्ष है इसका तकनीकी पहलू जो की इसे अन्य भोजपुरी फिल्मों से एक अलग

श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है.  सम्पादन,  बैकग्राउंड  मिउज़िक हो या फिर कहानी कहने का तरीका , भोजपुरी

फिल्मों के ५० सालों के इतिहास में ऐसा शायद ही देखने को कभी मिला हो.  

अभिनय पक्ष भी इसका ख़ासा प्रभावशाली है चाहे  इसके नए कलाकार हो या आशीष विद्यार्थी जैसा पुराना

चावल. गीत और संगीत की बात करें तो सिर्फ  ये  तथ्य की सोनू निगम, श्रेया घोषाल, शारदा सिन्हा, स्वानंद

किरकिरे, मिका, सुनिधि चौहान जैसे बड़े नाम इससे जुडे हैं, इसे एक अन्य श्रेणी में लाकर खड़ा नहीं करता.

'देसवा' के गानों के बोल और संगीत सिर्फ आपके कानों तक नहीं बल्कि आपके दिलों तक पहुंचते हैं.

'देसवा' एक प्रयास है; एक छोटा सा कदम है भोजपुरी  अस्मिता और भोजपुरी फिल्मों की गरिमा को वापस

पाने की. उम्मीद है ये छोटा सा कदम भोजपुरी फिल्मों में बदलाव की एक नयी बहार  लाएगा  .