
कल्चर ऑफ़ साएलेंस
कल्चर--- आखिर क्या है ये शब्द सो बचपन से मैं सुनता आया हूँ. जहाँ तक मेरी समझ मुझे ले जाती है और जिंदगी ने जितना अनुभव मुझे दिया है, उस लिहाज से संस्कृति या कल्चर का अर्थ मेरे लिए यही है कि किस प्रकार हम अपनी निजी और सामजिक जिंदगी जीते हैं. जिस तरह हम खुद को प्रेजेंट करते हैं दुनिया के सामने उसी को ये दुनिया हमारी संस्कृति का नाम देती है कि भाई ये लड़का बड़ा संस्कारी मालूम पड़ता है या फिर इस लड़के को तो लगता है कि इसके माँ-बाप से कभी कोई संस्कार दिए ही नहीं, वगैरह वगैरह.कल्चर का अर्थ सिर्फ वो रिवाज या संस्कार नहीं जो हम सदियों से निभाते चले आ रहे हैं.यहाँ जिस संस्कृति कि बात मैं कर रहा हूँ वो है "कल्चर ऑफ़ साईलेंस"-- "चुप्पी कि संस्कृति".वो संस्कृति जो पिछले कुछ समय से बड़ी तेजी से मेरी जिंदगी में अपने पाँव पसारे जा रही है.असल में ये 'चुप्पी कि संस्कृति' ओने आस-पास हो रहे गलत और unethical कार्यों को देखने के बाद भी अपनी आवाज़ नहीं उठाना है.क्यूँ हम उसे चुपचाप होने देते हैं चाहे वो कितना ही गलत क्यूँ ना हो? क्यूँ हम आगे बढ़ कर उन्हें वो गलत और अनैतिक कार्य करने से रोकते नहीं हैं? माना कि लोगों कि मानसिकता बदलना आसन नहीं पर हम पहल भी तो नहीं करते उन्हें वैसा करने से रोकने कि.मैं जब भी ऐसा कुछ करने कि कोशिश करता हूँ तो यही सुनने को मिलता है -" छोडो जाने दो। तुम्हे क्या प्रॉब्लम हो रही है. जैसा वो कर रहा है करने दो उसे. तुम क्यूँ टेंशन लेते हो. तुम बस अपने आप से मतलब रखो. दूसरा जो कर रहा है उससे करने दो."अब चाहे वो कॉलेज में मेरे कुछ क्लासमेट्स द्बारा क्लास नहीं आने पर भी अपना अटेंडेंस खुद बना लेना हो या फिर पासपोर्ट वेरिफिकेशन के लिए आये अधिकारी का वेरिफिकेशन की प्रकिरिया पूरी करने के लिए "खर्चे-पानी" की 'गुजारिश', हर जगह हर बार चुप्पी की संस्कृति अपनाने की सलाह दी जाती है. तर्क ये दिया जाता है कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं रखते. ये बिहार है यहाँ कुछ नहीं बदलने वाला. आखिर अकेला चना कभी भांर फोड़ सकता है भला?ये चुप्पी की संस्कृति मुझे आये दिन परेशान करती है।
I FEEL SO HELPLESS AT TIMES।पर जैसा चल रहा है उससे देख कर तो यही लगता है कि मुझे भी चाहे-अनचाहे इस चुप्पी की संस्कृति के आगे घुटने टेक देने होंगे और उसे अपनाना ही होगा. पर ये शर्मिंदगी मुझे जिंदगी भर कचोटती रहेगी कि मैंने हार कर इस 'चुप्पी की संस्कृति' को अपनाया था. नहीं ला सका मैं कोई बदलाव इस दुनिया में. इतनी हिम्मत नहीं दिखा सका कि अपने अधिकारों के लिए, सच के लिए खडा हो सकूँ.यही संस्कृति मुझे अपने समाज से अपनी पहले वाली पीढी से मिली है और शायद यही में आने वाली पीढी को दूंगा. पर मुझे हमेशा उस श्रोत का इंतज़ार रहेगा जो इस चुप्पी कि संस्कृति को तोडेगा और हमें अपने हक़ के लिए,सच के लिए खड़े होने कि हिम्मत देगा. मुझे उसका इंतज़ार रहेगा!!!!!!
2 comments:
thats wthe problem that i thoo follow in daily life.but i think usually only 1 out of lakh people have that "JIGAR" to go against the culture of silence. this is the culture of whole nation and not only a particular region. in colleges ,on road ,at offices ......everywhere.
it's a saying that "BE THE CHANGE YOU WANT TO SEE "
and as far as ur wait for the source of change to come is concerned bro!
all i want to say is
"THE BEST WAY TO CHANGE THE WORLD IS BY NOT BEING CHANGED BY IT"- mahatma gandhi@
keep writing.
regards
PULKIT
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